Tuesday, October 26, 2010

चंदा मामा आ भी जाओ...........................

आज करवाचौथ का पर्व मनाया जा रहा है.....मेरी पत्नी सुबह 4।30 बजे सरगी खाकर इसकी शुरूआत की तभी से यह सोच रहा कि मैं उनका साथ कैसे दू? हालाकि सुबह काम पर जाना था और उन्होंने नाश्ता बनाकर मेरे सामने रख दिया..... मैंने नाश्ता शुरू तो किया लेकिन लेकिन बडा असहज रहा... दोपहर को बाहर ही कुछ खा लिया ताकि कम-से -कम अपनी असह्जता का भान उन्हें न कराऊ॥ .. हालाकि घर आकर कह दिया कि बाहर ही कुछ खा लिया है......घर आने के पश्चात मै भी उनका साथ दे रहा हूं......साथ ही खाउंगा...... चन्द्र्मा के दर्शन के पश्चात.....
रास्ते में सोचा क्या लेता चलूं उंनके लिए.....कोइ गिफ्ट ....कुछ सोच नहीं पाया!!!!!!!!! अपनी बेवकूफी पर तरस आई कि शादी के पश्चात भी तो नहीं दिया था कुछ....शायद उंनका पसंदीदा कोइ फल ले लेता हूं ....सो ले लिया......घर आते ही बड़ॆ उत्साह से उनके हाथों में फल थमा दिया... ...बड़े उत्साह से उन्होंने कहा बहुत अच्छा है और साथ ही यह भी कि इसे खाने के लिए तो बड़ा इतजार करना पड़ेगा॥
आज मार्केट में चौकलेट की मिठास से लेकर चमकता हुआ सोना तक है लेकिन किसी के मन कि पवित्रता के माफिक गिफ्ट क़हॉ!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
मैं, बहरहाल उस बारे में तर्क-वितर्क नहीं करना चाहता कि ये सारे व्रत- उपवास इन्हीं के जिम्में क्यों????? अनेकानेक बातें------------ बस इंनकी अपार श्रद्धा पर नत्मस्तक हूं....
अब जाता हूं चंदा मामा को खोजने थोडी विनती करने कि जल्दी आओ...
जल्द ही मिलता हूं.......

Friday, August 28, 2009

नाटककार सुरेन्द्र वर्मा और स्त्री के नये तेवर


सुरेन्द्र वर्मा नाट्य साहित्य के क्षेत्र में स्थापित एक ऐसे नाटककार व रंगकर्मी हैं जिन्होंने सांस्क़ृतिक परम्परा से शक्ति ग्रहण कर वर्तमान की समस्याओं को अभिनय की संभावनाओं में पिरोकर प्रस्तुत किया है।''काम'' वर्णन को हीन मानने वाली मानसिकता के विरोध में एक ऐसी रंगभाषा का निर्माण करते हैं जो ''काम'' की महनीयता को रंग-क्षेत्र में स्थापित करती है ।नाटककार इस भौतिक जगत की अनुभूतियों को नाटक की कथावस्तु के रूप में चयनित करता है।स्त्री की पीड़ा,आकांक्षा,अनुभूति व द्वन्द्व को वे विशेष स्थान देते हैं।मूक गुड़िया की भांति जीवन की अवहेलना करके अपनी समस्त सूक्ष्म भावनाओं की तिलांजलि देनेवाली स्त्री उनके नाटकों की नायिका नहीं हैं।आदर्शों को ही सत्य मानने वाली व्यवस्था को वे झकझोर देते हैं और हर परम्परा पर नए सिरे से विचार करने के लिए बाध्य करते हैं। उनके नाटकों मे चरित्र अपनी सम्पूर्ण द्रढ़ता के साथ उभरकर अपने क्रिया व्यापारों से नाटक को जीवंतता प्रदान करते हैं तथा अपना चहुंमुखी विकास करके दर्शक/पाठक तक अर्थ को सम्प्रेषित करते हैं।रंगभाषा और रंग व्याकरण की गहरी समझ उनके नाटकों के भीतर अर्थ की व्यंजनाओं में देखी जा सकती है.रूढ़ीवादी परम्परा के अस्वीकार के साहस और क्लीवता का विरोध करने के संदर्भ में उन्हें जयशंकर प्रसाद के समानांतर देखा जा सकता है.

Monday, August 24, 2009

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना


आज यह कैसा संयोग है कि एक साथ तीन पवित्र त्योहार मनाये जा रहे हैं-- पहला, गणेश चतुर्थी का त्योहार, दूसरा, पवित्र रोजे की शुरूआत , तीसरा, नवरात्र के लिये भूमिपूजन...
आज जब समाचारों में चारों तरफ हताशा भरी खबर दिखाई देती है तो न जाने ऐसा लगता है कि त्योहार विभिन्न सम्प्रदायों को मरहम लगाने का काम कर रहे हैं एवं जीवन में नया उत्साह भर रहा है ...आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ''विज्ञान और धर्म'' लेख में लिखा है ''नाना मतों और मजहबों की विशेष-विशेष स्थूल बातों को लेकर झगड़ा-टंटा करने का समय अब नहीं है........ईश्वर साकार है कि निराकार लम्बी दाढ़ीवाला है कि चार हाथवाला,अरबी बोलता है कि संस्कृत, मूर्ति पूजनेवालों से दोस्ती रखता है कि आसमान की ओर हाथ उठानेवालों से- इन बातों पर विवाद करनेवाले अब केवल उपहास के पात्र होंगे।'''
आजादी के बाद की स्थितियां हमारे देश और समाज के लिए चुनौतीपूर्ण रही हैं।आजादी के लिए देश के विभिन्न सम्प्रदायों ने मिलकर एक साथ लड़ाई लड़ी लेकिन आजादी मिलने के साथ ही पाकिस्तान का भी गठन हुआ.पाकिस्तान के गठन के साथ ही ब्रिटिश हुकूमत अपनी इस मंशा में सफल रही जिसने हिन्दू-मुस्लिम में विभेद पैदा किया.जिस जज्बे के साथ इन दो कौमों ने आजादी की लड़ाई में एक साथ शिरकत की उसमें दरार सी आने लगी लेकिन इन थपेड़ों के बीच भी हमारी संस्कृति की द्रढ़ता मजबूत होती गई.
हम चाहे अलग-अलग धर्म के माननेवाले हों लेकिन भारतीय प्रजातंत्र एवं संविधान में हमारी आस्था मजबूत हुई है.

Sunday, August 16, 2009

हबीब और चरन दास


हबीब तनवीर के नाटक "चरनदास चोर" पर छ्तीसगढ सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया है.अभी कुछ ही दिन तो हुए थे तनवीर को इस दुनिया को अलविदा कहे हुए कि स्रजन कर्म को कठघ्ररे में लाकर उन्हीं की कर्मभूमि में खड़ा कर दिया गया.
हरेक युग की सत्ता अपने समय के अनुरूप साहित्य को परखती है एवं तदनुसार उसकी सार्थकता सिद्ध करती है.एक समय का समाज ऐसा था जब अपने अनुकूल (सत्ता वर्ग) साहित्य का स्रजन करवाता था और उसे पुरस्क्रत करता था..लेकिन न तो वैसा साहित्य काल का अतिक्रमण करता है और न ही समाज की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है अत: संभव है कि वह लोकतांत्रिक नहीं होगा.तो क्या आज के समय में भी यह जरूरी है कि साहित्य की रचना सत्ता वर्ग या किसी समाज विशेष को देखकर की जानी चाहिए?सत्ता के नफे-नुकसान मे साहित्य कितना सहयोग प्रदान करता है क्या यही कसौटी होनी चाहिए?
उसी राज्य में विनायक सेन पर भी प्रतिबंध लगा था जिनको अंतत: माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा राहत मिली है.एम.एफ.हुसैन के स्रजन कर्म पर भी ऐसे ही सवाल उठाए जाते रहे हैं.
किसी भी साहित्य की सार्थकता 'तब' और 'अब' से नहीं होनी चाहिए.यदि घासीदास के 'तब' की तुलना 'अब' बेहतर है तो हमें उससे प्रेरणा लेनी चाहिए न कि उसके 'तब' के स्वरूप पर आपत्ति दर्शा कर रचना को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए.यदि ऐसा ही हम वाल्मीकि के संदर्भ में देखें तो स्थिति और भी स्पष्ट है कि उनके पूर्व के स्वरूप को जानते हुए भी उनकी रचनाध्रर्मिता पर हमारी आस्था न केवल बनी रहती है बल्कि द्र्ढ़ से द्रढ़्तर होती जाती है.
तो फिर चरन दास चोर के संदर्भ में हमारी(सत्ता एवं राजनीति)मानसिकता धर्मबद्ध होकर क्यों रह जाती है?क्या घासीदास के आज का स्वरूप उनकी विशिष्ट्ता का विस्तार का विस्तार नहीं और यदि है तो यह प्रतिबंध क्यों?

Friday, July 31, 2009

सॉसें जैसे रूक-रूक कर आ रही थी


आज 'अथर्व' का

प्ले-स्कूल का चौथा दिन

पहले,दूसरे और तीसरे दिन

तो वह हमारे साथ गया

सो

ना-नुकूर करते

चला ही गया,

चौथे दिन उसे वैन में जाना था

हम दोनों सहमें हुए थे

आखिर

वह समय आ गया

वैन के पास हम दोनों खड़े

'अथर्व'

अपनी मिमी-मॉ की गोदी में

मैंने कहा

बेटा जाओ वैन में

वह अपनी मिमी-मॉ सॆ

चिपट गया

और कहा

नहीं

मैंने एक नजर वैन के

अन्दर डाली

ओफ!!!

ढाई-तीन साल के छोटे-छोटे

बच्चे मुझे नजर आये

जिनका चेहरा

लाल सुर्ख गुलाबी

सबकी ऑखों में मुझे लगा


अपने मन को मैंने

मजबूत किया यह दिलासा दिलाते हुए

कि

और भी तो बच्चे जाते हैं

जो

अवि(अथर्व) की तरह

ही

तो है

फिर 'अथर्व' को कहा

बैठो बेटा

वह बैठ गया

यह कहते कि

अब 'अवि' नहीं रोएगा

वैन चल दी

लेकिन

ऐसा लगा कि

हम तीनों की सॉसें

जैसे

रूक-रूक कर आ रही हो

हम दोनों लौट पड़े

एक-दूसरे की

ऑखों को देखा

लेकिन

निःशब्द!!




Saturday, December 6, 2008

खामोश!!ब्रेकिंग न्यूज जारी है..

आज भारतीय इलेक्ट्रौनिक मीडिया अपनी बेबाकी के लिए खुद को कठघरे में खड़ी पा रही है। मुम्बई के हादसे ने एक बार पुनः मीडिया के स्वतंत्र चरित्र पर सवाल खड़ा कर दिया है कि स्वतंत्रता एवं उच्छ्र्खलता में वहॉ विभेद है या नहीं?

क्या इलेक्ट्रौनिक मीडिया का बाजार केवल ''ब्रेकिंग'' तक ही टिका हुआ है या उससे आगे भी उसकी कोई जिम्मेदारी है।इससे कौन इनकार कर सकता है कि भारत के साथ -साथ विश्व आतंकवाद के इस रूप को लेकर चिंतित हैं लेकिन इलेक्ट्रौनिक मीडिया पुनः अपनी वही न्यायाधीश वाली भूमिका में नजर आई है।इधर मुम्बई पर हमला हुआ और उधर इलेक्ट्रौनिक मीडिया ने इस हमले में पाकिस्तान को घसीटना शुरू कर दिया।

हॉ, बाद में यहाँ प्रमाण जरूर मिलने लगा कि लश्कर के साथ-साथ आई।एस.आई. की भी इस नापाक इरादे में शामिल होने संभावना है जिसकी पुष्टि भारत सरकार की तरफ से होना बाकी थी.

तो इलेक्ट्रौनिक मीडिया चाहती क्या है? क्या ''ब्रेकिंग न्यूज'' आज हमारे एवं मीडिया इंडस्ट्री के लिए इतनी जरूरी हो गयी है कि इसकी प्रतिस्पर्धा में वे थोड़ा सा भी परहेज नहीं कर सकते कि इस तरह की बयानबाजी से उनकी साख पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

भाषा के स्तर पर कम-से-कम जजमेंट वाली भाषा का प्रयोग उसी क्षण तो नहीं ही किया जाना चाहिए था। जब कोई भी एसी जजमेंटल भाषा का प्रयोग करता है तो उसक प्र्भाव व्यापक होता है और जब मीडिया केवल अपने ब्रेकिंग न्यूज की खातिर यह करने लगे तो उसकी साख पर बट्टा लगना स्वाभाविक है।

आज ''ब्रेकिंग न्यूज'' का आलम यह है कि आधे घंटे में एक नयी ब्रेकिंग न्यूज हमारे सामने हाजिर होती है और यदि कहीं हमें किसी चैनल पर यहाँ नहीं दिखती है तो तुरंत हम किसी दूसरे चैनल की तरफ का रूख करते है । मसलन कि हमारे समाज को अब ब्रेकिंग न्यूज की लत हो गई है जो उसकी संवेदनशीलता को खंडित कर रही है।खंडित इस रूप में कि कोई भी ब्रेकिंग न्यूज उसके लिए मनोरंजन एवं सनसनाहट का साधन भर बन गयी है.

आज ''ब्रेकिंग न्यूज''के बहाने इलेक्ट्रौनिक मीडिया इसी चीज को हमारे सामने रखकर अपने बाजार को गर्म कर रही है।तभी तो आपको वो यह भी बताती है कि उसके चैनल का कैमरा किसी घटना विशेष को कितना कवर कर रहा है ताकि आप उससे चिपके रहे।

लेकिन क्या मीडिया का उत्तरदायित्व किसी घटना को कवर करना,ब्रेकिंग न्यूज के तौर पर हमारे सामने पहुंचाना ही एक अहम लक्ष्य है और उसके आगे कुछ नहीं?

भारतीय मीडिया को बड़े ही गंभीर रूप से भारत के बाहर लिया जाता है।लेकिन उसके ब्रेकिंग न्यूज के लिए नहीं बल्कि समय के साथ-साथ चलने के लिए. आज इलेक्ट्रौनिक मीडिया समय की धड़कन एवं समाज के नब्ज को एक साथ लेकर चल रही है.

लेकिन खलल उत्पन्न तब होता है जब दोनों को संतुलित करने वाला तत्व 'उत्तरदायित्व' गायब हो जाता है।

पाकिस्तान में तो जी अभी जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए जब उसकी इडस्ट्री खुली हवा में पॉव पसार रही है लेकिन हमारी ब्रेकिंग न्यूज की करतूत की वजह से आज वह भी आप पर पत्थर फेंक रहे हैं।

इसलिए इन ब्रेकिंग वालों से आग्रह है कि वे किसी जजमेंट पर पहुंचने से पहले आखिर थोड़ा ठहरकर सोच लें कि वो क्या कहने जा रहे हैं और उसका प्रभाव क्या होने जा रहा है।

साथ ही भाई ये क्या मजाक एक तरफ कमांडो अपनी कारवाई कर रहे है और दूसरी तरफ आप उसका लाइव कवरेज दिखा रहे हो फिर आधिकारिक हस्तक्षेप के बाद आप उसका डेफर्ड लाइव दिखाते हो।बंधु इतना तो जानते हो कि कमांडो एक्शन को लाइव दिखाकर आप किसकी मदद कर रहे थे?भाई वो तो कोई अभ्यास तो था नहीं लेकिन आपलोगों ने उसे युद्धाभ्यास की शक्ल दे दी.

आप मीडिया वाले कुछ बोलते क्यों नहीं????????????

Sunday, November 30, 2008

नो फाइट बैक

मुम्बई में होने वाले आतंकवादी घटना के बाद चारों तरफ यह चर्चा चल रही है कि इस घटना की जिम्मेदारी आखिर किसकी है? हमारे राजनेता क्या समस्या के प्रति गंभीर नहीं हैं तथा ऐसी घटना घटित होने के बाद उस पर पुन: सोचते नहीं कि इसका समाधान क्या हो सकता है? दूसरी तरफ कारगिल के समय भी खुफिया तंत्र की नाकामी पर संसद में जोर-शोर से बहस तो हुई थी।लेकिन उससे भी सबक नहीं लिया गया. तो ऐसी बह्स का क्या अर्थ ? फिर विश्व समुदाय हमारी संसद में होने
वाली कार्यवाही को किस रूप में याद रखती होगी यह भी आज सोचने की बात है।
क्या इस बार भी खुफिया तंत्र को इस तरह की जानकारी नहीं थी और अगर रॉ जैसी संस्था को यह जानकारी थी और उन्होंने महाराष्ट्र सरकार से इसे शेयर किया तो आगे उसपर अमल क्यों नहीं हो सका??
क्या राज्य एवं केन्द्र की खुफिया तंत्र के बीच कोई तालमेल नहीं है??
जब भी इस तरह की घटना होती है उसके बाद कहा जाता है कि 'फाइट बैक' तो इसके सिवा किया भी क्या जा सकता है?? कहीं भी जिन्दगी चलाने के लिये पैसों की आवश्यकता होती है और वह तो घर बैठे मिल नहीं सकता।
तो 'फाइट बैक' की संकल्पना थोथी है ,मजबूरी है। काश्मीर में तो वर्षों से दहशतगर्दी का माहौल चल रहा है वहॉ क़ॆ लोगों के लिए हरेक दिन fight back ही तो है जो हमेशा कफन लेकर चलते हैं।
दीगर बात है कि अपने पड़ोसी देश के साथ बात चले ,सौहार्द्र की स्थापना हो इसमें बुरा क्या है??लेकिन क्या इसके आधार पर हम चैन की बंसी बजाने लगे तो यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए शोभा नहीं देता.