सुरेन्द्र वर्मा नाट्य साहित्य के क्षेत्र में स्थापित एक ऐसे नाटककार व रंगकर्मी हैं जिन्होंने सांस्क़ृतिक परम्परा से शक्ति ग्रहण कर वर्तमान की समस्याओं को अभिनय की संभावनाओं में पिरोकर प्रस्तुत किया है।''काम'' वर्णन को हीन मानने वाली मानसिकता के विरोध में एक ऐसी रंगभाषा का निर्माण करते हैं जो ''काम'' की महनीयता को रंग-क्षेत्र में स्थापित करती है ।नाटककार इस भौतिक जगत की अनुभूतियों को नाटक की कथावस्तु के रूप में चयनित करता है।स्त्री की पीड़ा,आकांक्षा,अनुभूति व द्वन्द्व को वे विशेष स्थान देते हैं।मूक गुड़िया की भांति जीवन की अवहेलना करके अपनी समस्त सूक्ष्म भावनाओं की तिलांजलि देनेवाली स्त्री उनके नाटकों की नायिका नहीं हैं।आदर्शों को ही सत्य मानने वाली व्यवस्था को वे झकझोर देते हैं और हर परम्परा पर नए सिरे से विचार करने के लिए बाध्य करते हैं। उनके नाटकों मे चरित्र अपनी सम्पूर्ण द्रढ़ता के साथ उभरकर अपने क्रिया व्यापारों से नाटक को जीवंतता प्रदान करते हैं तथा अपना चहुंमुखी विकास करके दर्शक/पाठक तक अर्थ को सम्प्रेषित करते हैं।रंगभाषा और रंग व्याकरण की गहरी समझ उनके नाटकों के भीतर अर्थ की व्यंजनाओं में देखी जा सकती है.रूढ़ीवादी परम्परा के अस्वीकार के साहस और क्लीवता का विरोध करने के संदर्भ में उन्हें जयशंकर प्रसाद के समानांतर देखा जा सकता है.
सीता की दुविधा, रामकथा का नया रूप
14 years ago