हबीब तनवीर के नाटक "चरनदास चोर" पर छ्तीसगढ सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया है.अभी कुछ ही दिन तो हुए थे तनवीर को इस दुनिया को अलविदा कहे हुए कि स्रजन कर्म को कठघ्ररे में लाकर उन्हीं की कर्मभूमि में खड़ा कर दिया गया.
हरेक युग की सत्ता अपने समय के अनुरूप साहित्य को परखती है एवं तदनुसार उसकी सार्थकता सिद्ध करती है.एक समय का समाज ऐसा था जब अपने अनुकूल (सत्ता वर्ग) साहित्य का स्रजन करवाता था और उसे पुरस्क्रत करता था..लेकिन न तो वैसा साहित्य काल का अतिक्रमण करता है और न ही समाज की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है अत: संभव है कि वह लोकतांत्रिक नहीं होगा.तो क्या आज के समय में भी यह जरूरी है कि साहित्य की रचना सत्ता वर्ग या किसी समाज विशेष को देखकर की जानी चाहिए?सत्ता के नफे-नुकसान मे साहित्य कितना सहयोग प्रदान करता है क्या यही कसौटी होनी चाहिए?
उसी राज्य में विनायक सेन पर भी प्रतिबंध लगा था जिनको अंतत: माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा राहत मिली है.एम.एफ.हुसैन के स्रजन कर्म पर भी ऐसे ही सवाल उठाए जाते रहे हैं.
किसी भी साहित्य की सार्थकता 'तब' और 'अब' से नहीं होनी चाहिए.यदि घासीदास के 'तब' की तुलना 'अब' बेहतर है तो हमें उससे प्रेरणा लेनी चाहिए न कि उसके 'तब' के स्वरूप पर आपत्ति दर्शा कर रचना को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए.यदि ऐसा ही हम वाल्मीकि के संदर्भ में देखें तो स्थिति और भी स्पष्ट है कि उनके पूर्व के स्वरूप को जानते हुए भी उनकी रचनाध्रर्मिता पर हमारी आस्था न केवल बनी रहती है बल्कि द्र्ढ़ से द्रढ़्तर होती जाती है.
तो फिर चरन दास चोर के संदर्भ में हमारी(सत्ता एवं राजनीति)मानसिकता धर्मबद्ध होकर क्यों रह जाती है?क्या घासीदास के आज का स्वरूप उनकी विशिष्ट्ता का विस्तार का विस्तार नहीं और यदि है तो यह प्रतिबंध क्यों?
हरेक युग की सत्ता अपने समय के अनुरूप साहित्य को परखती है एवं तदनुसार उसकी सार्थकता सिद्ध करती है.एक समय का समाज ऐसा था जब अपने अनुकूल (सत्ता वर्ग) साहित्य का स्रजन करवाता था और उसे पुरस्क्रत करता था..लेकिन न तो वैसा साहित्य काल का अतिक्रमण करता है और न ही समाज की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है अत: संभव है कि वह लोकतांत्रिक नहीं होगा.तो क्या आज के समय में भी यह जरूरी है कि साहित्य की रचना सत्ता वर्ग या किसी समाज विशेष को देखकर की जानी चाहिए?सत्ता के नफे-नुकसान मे साहित्य कितना सहयोग प्रदान करता है क्या यही कसौटी होनी चाहिए?
उसी राज्य में विनायक सेन पर भी प्रतिबंध लगा था जिनको अंतत: माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा राहत मिली है.एम.एफ.हुसैन के स्रजन कर्म पर भी ऐसे ही सवाल उठाए जाते रहे हैं.
किसी भी साहित्य की सार्थकता 'तब' और 'अब' से नहीं होनी चाहिए.यदि घासीदास के 'तब' की तुलना 'अब' बेहतर है तो हमें उससे प्रेरणा लेनी चाहिए न कि उसके 'तब' के स्वरूप पर आपत्ति दर्शा कर रचना को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए.यदि ऐसा ही हम वाल्मीकि के संदर्भ में देखें तो स्थिति और भी स्पष्ट है कि उनके पूर्व के स्वरूप को जानते हुए भी उनकी रचनाध्रर्मिता पर हमारी आस्था न केवल बनी रहती है बल्कि द्र्ढ़ से द्रढ़्तर होती जाती है.
तो फिर चरन दास चोर के संदर्भ में हमारी(सत्ता एवं राजनीति)मानसिकता धर्मबद्ध होकर क्यों रह जाती है?क्या घासीदास के आज का स्वरूप उनकी विशिष्ट्ता का विस्तार का विस्तार नहीं और यदि है तो यह प्रतिबंध क्यों?
4 comments:
विचारणीय सटीक बात. आभार.
सोचनीय बात राखी है आपने
पंकज
यह घटना खेदजनक और नींदनीय है:(
आप की बात एकदम सही है....
Post a Comment