मुम्बई में होने वाले आतंकवादी घटना के बाद चारों तरफ यह चर्चा चल रही है कि इस घटना की जिम्मेदारी आखिर किसकी है? हमारे राजनेता क्या समस्या के प्रति गंभीर नहीं हैं तथा ऐसी घटना घटित होने के बाद उस पर पुन: सोचते नहीं कि इसका समाधान क्या हो सकता है? दूसरी तरफ कारगिल के समय भी खुफिया तंत्र की नाकामी पर संसद में जोर-शोर से बहस तो हुई थी।लेकिन उससे भी सबक नहीं लिया गया. तो ऐसी बह्स का क्या अर्थ ? फिर विश्व समुदाय हमारी संसद में होने
वाली कार्यवाही को किस रूप में याद रखती होगी यह भी आज सोचने की बात है।
क्या इस बार भी खुफिया तंत्र को इस तरह की जानकारी नहीं थी और अगर रॉ जैसी संस्था को यह जानकारी थी और उन्होंने महाराष्ट्र सरकार से इसे शेयर किया तो आगे उसपर अमल क्यों नहीं हो सका??
क्या राज्य एवं केन्द्र की खुफिया तंत्र के बीच कोई तालमेल नहीं है??
जब भी इस तरह की घटना होती है उसके बाद कहा जाता है कि 'फाइट बैक' तो इसके सिवा किया भी क्या जा सकता है?? कहीं भी जिन्दगी चलाने के लिये पैसों की आवश्यकता होती है और वह तो घर बैठे मिल नहीं सकता।
तो 'फाइट बैक' की संकल्पना थोथी है ,मजबूरी है। काश्मीर में तो वर्षों से दहशतगर्दी का माहौल चल रहा है वहॉ क़ॆ लोगों के लिए हरेक दिन fight back ही तो है जो हमेशा कफन लेकर चलते हैं।
दीगर बात है कि अपने पड़ोसी देश के साथ बात चले ,सौहार्द्र की स्थापना हो इसमें बुरा क्या है??लेकिन क्या इसके आधार पर हम चैन की बंसी बजाने लगे तो यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए शोभा नहीं देता.
सीता की दुविधा, रामकथा का नया रूप
14 years ago
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