Sunday, November 9, 2008

एक पेंच

उसकी मम्मी कहती थी
अक्सर
कि
उसका बेटा किसी खिलौने
से
नहीं खेलता है ज्यादा समय
बस
उसके लिए क्षणिक आकर्षण भर होता है
वह खिलौना
फिर ना जाने क्यूं उस खिलौने
के पुर्जे-पुर्जे अलग करने में
उसका मन ज्यादा लगता है
और
मैं कहता हूं कि
शायद उसका बेटा
ना जाने क्या
उन खिलौने के पुर्जे-पुर्जे
में ढूढता था,
कोई 'एक पेंच'
जो उन खिलौनों को
आपस में जोड़ सकता था
और
वह 'पेंच'
शायद उस परिवार से
गायब था.

3 comments:

Vivek Gupta said...

सुंदर कविता

Udan Tashtari said...

गहरी रचना है..अभी भी उधेड बून में लगा हूँ निचोड़ पाने की.

जितेन्द़ भगत said...

ओह, क्‍या बात कह दी आपने, शायद यह पेंच संयुक्‍त परि‍वार में ढ़ूढना ना पड़ता, क्‍योंकि‍ वहॉं खि‍लौनों की जगह रि‍श्‍ते होते हैं, और एकल परि‍वार में रि‍श्‍तों की जगह खि‍लौने।