उसकी मम्मी कहती थी
अक्सर
कि
उसका बेटा किसी खिलौने
से
नहीं खेलता है ज्यादा समय
बस
उसके लिए क्षणिक आकर्षण भर होता है
वह खिलौना
फिर ना जाने क्यूं उस खिलौने
के पुर्जे-पुर्जे अलग करने में
उसका मन ज्यादा लगता है
और
मैं कहता हूं कि
शायद उसका बेटा
ना जाने क्या
उन खिलौने के पुर्जे-पुर्जे
में ढूढता था,
कोई 'एक पेंच'
जो उन खिलौनों को
आपस में जोड़ सकता था
और
वह 'पेंच'
शायद उस परिवार से
गायब था.
सीता की दुविधा, रामकथा का नया रूप
14 years ago
3 comments:
सुंदर कविता
गहरी रचना है..अभी भी उधेड बून में लगा हूँ निचोड़ पाने की.
ओह, क्या बात कह दी आपने, शायद यह पेंच संयुक्त परिवार में ढ़ूढना ना पड़ता, क्योंकि वहॉं खिलौनों की जगह रिश्ते होते हैं, और एकल परिवार में रिश्तों की जगह खिलौने।
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