ऐसा ही तो कहा था
कि
बस अभी-अभी आता हूं
मम्मी-पापा से
लेकिन
न जाने 'अभी-अभी' ने
कितना फासला बना दिया
कि वो जो सफर शुरू किया था
खत्म होने का नाम ही नहीं लेता
बार-बार पीछे की ओर
लौटना चाहता हूं,
और सोचता हूं कि खिलौने में भरी
चाबी की तरह
यह फासला भी खत्म हो जाए
लेकिन
इस महानगर की आपाधापी ने उलझा दिया है
मुझे
अभिमन्यु के चक्रव्यूह की तरह...
सीता की दुविधा, रामकथा का नया रूप
14 years ago
3 comments:
हम सभी लगातार अपनों से दूर होते जा रहे हैं, जो लोग अपने माता-पिता के साथ रह रहे हैं वे भी कितने साथ हैं, क्या पता।
thanks jitendra bhai for your valuable comments.
रिश्ते तो बस बस रिसते जा रहे हैं...वाकई रिश्तो की जिस गर्माहट की कल्पना और अपनों से दूर होने का अहसास यहाँ होता है..सच कहूँ तो वहाँ पहुँच कर यह एक अलग ही रूप में होता है..कुछ-कुछ बेगानेपन सा कुछ-कुछ अजनबीपन का.खाने को लेकर कुछ कहा नहीं कि बस जवाब आएगा(हंसकर ही सही पर लगता है कही)-हाँ भाई अब तो दिल्ली वाले हो गए हैं वही का रुचेगा हमलोग तो देहाती ठहरे...मन में घर पहुँच कर लिट्टी खाने का सपना भड़क कर फ़ुट जाता है..खैर अच्छी पोस्ट
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